बच्चों के लिए प्रैम मददगार या ख़तरनाक?
भारत से बच्चा गोद लेने वाले इस कार्यक्रम के दोबारा शुरू होने का
फ़ायदा ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले भारतीय मूल के नागरिकों को भी मिलने की
उम्मीद है.
42 साल की जॉयलक्ष्मी और उनके पति मंजीत सिंह सैनी ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में रहते हैं. जॉयलक्ष्मी और मंजीत पिछले 8 साल से इस कार्यक्रम के दोबारा शुरू होने का इंतज़ार कर रहे हैं.
जॉयलक्ष्मी को साल 2008 में एंडोमीट्रियोसिस ऑपरेशन करवाना पड़ा था, इसी वजह से वो अब गर्भधारण नहीं कर सकतीं.
जॉयलक्ष्मी कहती हैं कि वे फ़िलहाल यह सोच रही हैं कि ऑस्ट्रेलिया में ही स्थानीय जगह से बच्चा गोद लें या फिर भारत के साथ शुरू होने वाले अडॉप्शन कार्यक्रम के तहत भारतीय बच्चे को गोद लें.
जॉयलक्ष्मी ने मां बनने के लिए सरोगेसी का रास्ता भी अपनाया लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पाईं.
जॉयलक्ष्मी कहती हैं, ''हमारे लिए बच्चा गोद लेना ही आख़िरी रास्ता है, साल 2010 में हम भारत से दो बच्चों को गोद लेना चाहते थे लेकिन फिर भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच इंटरकंट्री अडॉप्शन प्रोग्राम रोक दिया गया.''
मैरी जोन्स (बदला हुआ नाम) एक सिंगल मदर हैं. वे क्वींसलैंड के एक दूरस्त इलाक़े में रहती हैं.
अडॉप्शन कार्यक्रम के दोबारा शुरू होने पर मैरी कहती हैं, ''यह बहुत ही अच्छी ख़बर है लेकिन अभी हमें इसके शुरू होने का इंतज़ार करना होगा. मेरा 9 साल का बेटा है, वह यहां खुद को बहुत ही अकेला महसूस करता है, इसीलिए मैं भारत की एक लड़की को पिछले चार साल से गोद लेने पर विचार कर रही हूं.''
मैरी अपने पति के साथ भारत से न्यूज़ीलैंड आ गई थीं. पांच साल पहले वे अपने पति से अलग होकर ऑस्ट्रेलिया चली गईं.
मैरी एक नर्स हैं और जब वे भारत में थीं तो उन्होंने बेंगलुरू के एक अनाथालय में बच्चों की दुर्दशा देखी थी. वे चाहती थी कि कम से कम एक भारतीय बच्चे को गोद लेकर उसे अच्छी ज़िंदगी दें.
अडॉप्ट चेंज नामक एक ग़ैरलाभकारी संस्था की मुख्य कार्यकारी अधिकारी रेनी कार्टर कहती हैं कि अनाथालयों में रहने वाले बच्चों के साथ दुर्वय्वहार होने के कई सबूत मिले हैं.
रेनी कार्टर इस बारे में विस्तार से बताती हैं, ''बच्चा गोद देने के मामले में सबसे पहले यही कोशिश होती है कि उसे देश के भीतर ही किसी परिवार को गोद दिया जाए, हालांकि अगर किसी बच्चे को दूसरे देश के परिवार में गोद दिया जा रहा है तो यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि यह पूरी प्रक्रिया सुरक्षित, पारदर्शी और सही तरीके से हो जिससे बच्चे को अच्छा माहौल और परिवार मिल सके.
एआईएचडब्ल्यू की रिपोर्ट के अनुसार साल 2016-17 के दौरान ऑस्ट्रेलिया में सभी 69 हुए इंटर-कंट्री अडॉप्शन एशिया के देशों से ही हुए. इन देशों में ताइवान से सबसे ज़्यादा हुए, इसके अलावा फिलिपींस, दक्षिण कोरिया और थाईलैंड से भी बच्चों को गोद लिया गया.
मोदी और मीडिया पर विश्वनाथन के एकरेखीय, सपाट मूल्यांकन की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है कि वह समूचे भारतीय मीडिया को एक जैसा और एकीकृत कर के देख रहे हैं, उसकी विपुल विविधता का आभास भी उनकी दृष्टि में नहीं दिखता.
वह भारतीय मीडिया को ऐसी ठोस चीज़ मान कर चल रहे हैं जिसके सारे अवयव एक ही जैसा छाप रहे हैं, दिखा रहे हैं. केवल दिल्ली में रह कर, केवल दिल्ली के अख़बार और चैनल पढ़ने देखने से यह दृष्टि संकुचन अक़्सर और ज़्यादातर लोगों को हो जाता है. बस उनसे हम यह एकांगिता अपेक्षित नहीं करते.
पर सचमुच सारे मीडिया में निरपवाद रूप से मोदी महिमा का ऐसा निरूपण हो रहा है क्या?
अंग्रेज़ी के सबसे प्रतिष्ठित और बड़े अखबारों को ले लीजिए, टाइम्स ऑफ इंडिया को छोड़ कर हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस, द हिन्दू, द टेलिग्राफ सही मुद्दों पर मोदी को तिलमिला देने वाली आलोचना करते हैं.
टेलिग्राफ और एक्सप्रेस तो अक़्सर ऐसी की तैसी वाले अंदाज़ अपना लेते हैं. टेलिग्राफ कई बार आलोचना से आगे बढ़ कर विरोध की पत्रकारीय अतिवादिता तक पहुंच जाता है.
हिन्दी में जागरण को छोड़ कर अमर उजाला, दैनिक हिन्दुस्तान, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर, भास्कर काफ़ी हद तक संतुलित रहते हैं. मोदी का महिमामंडन नहीं करते. राजस्थान पत्रिका तो ताल ठोक कर मोदी-भाजपा-वसुन्धरा आलोचना कर रहा है.
यह सच है कि चैनलों में कुछ तो सचमुच निर्लज्जता की हद तक मोदी भक्ति और विपक्ष-विरोध में जुटे हैं. हिन्दी अंग्रेजी दोनों में. पर तटस्थ और आलोचक भी हैं, दोनों ही भाषाओं में.
एक तरफ राष्ट्रवाद की सरिता बहती रहती है दूसरी ओर शुद्ध विरोध की. इन दो अतियों के बीच वाले भी हैं.
पिछले कुछ सालों में अपनी एक अलग जगह और धमक बना चुके कई ऑनलाइन समाचार-विचार मंचों में तो प्रमुखता मोदी-भाजपा विरोधी स्वरों की ही है. अंग्रेज़ी में खूब तीखी.
उसकी काट के लिए कई राष्ट्रवादी मंच भी उभरे हैं पर वह प्रभाव और प्रसार नहीं हासिल कर पाए हैं. ये ऑनलाइन मंच अपने तीखेपन, मौलिकता, निडरता, विविधता और बौद्धिकता में कई बार अपने प्रिंट साथियों से आगे दिखते हैं.
लेकिन ये सब मुख्यतः राजधानी दिल्ली या कुछ प्रमुख शहरों से निकलने वाले मीडिया की बात है वह भी हिन्दी और अंग्रेजी में.
पर व्यापक भारतीय मीडिया तो सारे राज्यों में, उनकी दर्जनों भाषाओं में है. अपनी दिल्ली-केन्द्रित दृष्टि के कारण हमारा ध्यान उन पर लगभग नहीं जाता. क्षेत्रीय अखबारों और समाचार चैनलों की संपादकीय भूमिका और रुख हमेशा से प्रदेश सरकारों के ज़्यादा ख़िलाफ़ ना जाते हुए, उनसे मिल कर चलने का ही रहा है.
अपवाद सब जगह हैं, यहां भी हैं. केन्द्र सरकार, केन्द्रीय सत्तारूढ़ पार्टी उनके लिए तब तक दोयम दर्ज़े का महत्व रखते हैं जब तक उनके अपने-अपने प्रदेशों से संबंधित बात न हो.
यह ठीक है कि आज बीस से ज़्यादा राज्यों में भाजपा-एनडीए सरकारें हैं इसलिए वहां का मीडिया इस असलियत को प्रतिबिम्बित करता है. केन्द्र-राज्य दोनों जगह एक पार्टी का होना उनके मुख्यमंत्री-मोदी-भाजपा-एनडीए समीकरण से प्रभावित होने को लगभग अनिवार्य सा बना देता है.
ये स्थितियां किसी भी लोकतंत्र के लिए आदर्श नहीं हैं. लेकिन भारतीय मीडिया के चरित्र की ज़मीनी वास्तविकता यही रही है एक लंबे समय से.
लेकिन इसका यह भी मतलब है कि बंगाल में ममता बनर्जी के उग्र रवैए, तेलंगाना में केसीआर, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, पंजाब आदि में आप मोदी की गोदी में बैठे होने का आरोप वहां के बहुसंख्यक मीडिया पर नहीं लगा पाएंगे.
उनका रुख़ अपनी सत्तारूढ़ पार्टी और मुख्यमंत्री के मन के मुताबिक रहता है. जब बिहार में नीतीश भाजपा विरोधी गठबंधन में रह कर सरकार चला रहे थे उस समय भी मीडिया को बेहद सख्ती से नियंत्रण में रखने के आरोप उन पर लग ही रहे थे. आज वही नियंत्रण और दबाव एनडीए के पक्ष में है.
बंगाल मीडिया का भी कुछ अपवादों को छोड़ कर यही हाल है. लेकिन चूंकि इस विराट क्षेत्रीय मीडिया के संपादकीय रुखों और भूमिकाओं का हमें ठीक से पता नहीं चलता इसलिए हमारी विचारों-विश्लेषण से भी यह विशाल विविधता गायब रहती है.
यह सच है कि मनमोहन सिंह सरकार के दस साल के कार्यकाल में मीडिया के कई हिस्से ऐसे मनमोहन या कांग्रेस भक्ति में नहीं लगे थे जैसे आज मोदी भक्ति में लगे हैं.
हालांकि यह याद रखना भी ज़रूरी है कि उन दस सालों में राहुल गांधी को देश और कांग्रेस के प्रखरतम राजनीतिक नायक, उद्धारक के रूप में स्थापित करने के कितने प्रबल मीडिया प्रयास हुए थे.
यह भी याद रखना उतना ही ज़रूरी है कि वे ही दिन थे जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हत्यारा, सांप्रदायिक आदि कहने, दिखाने के अभियान में देश के प्रमुखतम मीडिया संस्थान जम कर शामिल थे.
क्या किसी मुख्यमंत्री या भारतीय राजनीतिज्ञ को इतने लंबे, इतने ज़बरदस्त, इतने सघन विरोध और छविहनन को झेलना पड़ा है जितना मोदी को? नहीं.
42 साल की जॉयलक्ष्मी और उनके पति मंजीत सिंह सैनी ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में रहते हैं. जॉयलक्ष्मी और मंजीत पिछले 8 साल से इस कार्यक्रम के दोबारा शुरू होने का इंतज़ार कर रहे हैं.
जॉयलक्ष्मी को साल 2008 में एंडोमीट्रियोसिस ऑपरेशन करवाना पड़ा था, इसी वजह से वो अब गर्भधारण नहीं कर सकतीं.
जॉयलक्ष्मी कहती हैं कि वे फ़िलहाल यह सोच रही हैं कि ऑस्ट्रेलिया में ही स्थानीय जगह से बच्चा गोद लें या फिर भारत के साथ शुरू होने वाले अडॉप्शन कार्यक्रम के तहत भारतीय बच्चे को गोद लें.
जॉयलक्ष्मी ने मां बनने के लिए सरोगेसी का रास्ता भी अपनाया लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पाईं.
जॉयलक्ष्मी कहती हैं, ''हमारे लिए बच्चा गोद लेना ही आख़िरी रास्ता है, साल 2010 में हम भारत से दो बच्चों को गोद लेना चाहते थे लेकिन फिर भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच इंटरकंट्री अडॉप्शन प्रोग्राम रोक दिया गया.''
मैरी जोन्स (बदला हुआ नाम) एक सिंगल मदर हैं. वे क्वींसलैंड के एक दूरस्त इलाक़े में रहती हैं.
अडॉप्शन कार्यक्रम के दोबारा शुरू होने पर मैरी कहती हैं, ''यह बहुत ही अच्छी ख़बर है लेकिन अभी हमें इसके शुरू होने का इंतज़ार करना होगा. मेरा 9 साल का बेटा है, वह यहां खुद को बहुत ही अकेला महसूस करता है, इसीलिए मैं भारत की एक लड़की को पिछले चार साल से गोद लेने पर विचार कर रही हूं.''
मैरी अपने पति के साथ भारत से न्यूज़ीलैंड आ गई थीं. पांच साल पहले वे अपने पति से अलग होकर ऑस्ट्रेलिया चली गईं.
मैरी एक नर्स हैं और जब वे भारत में थीं तो उन्होंने बेंगलुरू के एक अनाथालय में बच्चों की दुर्दशा देखी थी. वे चाहती थी कि कम से कम एक भारतीय बच्चे को गोद लेकर उसे अच्छी ज़िंदगी दें.
अडॉप्ट चेंज नामक एक ग़ैरलाभकारी संस्था की मुख्य कार्यकारी अधिकारी रेनी कार्टर कहती हैं कि अनाथालयों में रहने वाले बच्चों के साथ दुर्वय्वहार होने के कई सबूत मिले हैं.
रेनी कार्टर इस बारे में विस्तार से बताती हैं, ''बच्चा गोद देने के मामले में सबसे पहले यही कोशिश होती है कि उसे देश के भीतर ही किसी परिवार को गोद दिया जाए, हालांकि अगर किसी बच्चे को दूसरे देश के परिवार में गोद दिया जा रहा है तो यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि यह पूरी प्रक्रिया सुरक्षित, पारदर्शी और सही तरीके से हो जिससे बच्चे को अच्छा माहौल और परिवार मिल सके.
एआईएचडब्ल्यू की रिपोर्ट के अनुसार साल 2016-17 के दौरान ऑस्ट्रेलिया में सभी 69 हुए इंटर-कंट्री अडॉप्शन एशिया के देशों से ही हुए. इन देशों में ताइवान से सबसे ज़्यादा हुए, इसके अलावा फिलिपींस, दक्षिण कोरिया और थाईलैंड से भी बच्चों को गोद लिया गया.
मोदी और मीडिया पर विश्वनाथन के एकरेखीय, सपाट मूल्यांकन की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है कि वह समूचे भारतीय मीडिया को एक जैसा और एकीकृत कर के देख रहे हैं, उसकी विपुल विविधता का आभास भी उनकी दृष्टि में नहीं दिखता.
वह भारतीय मीडिया को ऐसी ठोस चीज़ मान कर चल रहे हैं जिसके सारे अवयव एक ही जैसा छाप रहे हैं, दिखा रहे हैं. केवल दिल्ली में रह कर, केवल दिल्ली के अख़बार और चैनल पढ़ने देखने से यह दृष्टि संकुचन अक़्सर और ज़्यादातर लोगों को हो जाता है. बस उनसे हम यह एकांगिता अपेक्षित नहीं करते.
पर सचमुच सारे मीडिया में निरपवाद रूप से मोदी महिमा का ऐसा निरूपण हो रहा है क्या?
अंग्रेज़ी के सबसे प्रतिष्ठित और बड़े अखबारों को ले लीजिए, टाइम्स ऑफ इंडिया को छोड़ कर हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस, द हिन्दू, द टेलिग्राफ सही मुद्दों पर मोदी को तिलमिला देने वाली आलोचना करते हैं.
टेलिग्राफ और एक्सप्रेस तो अक़्सर ऐसी की तैसी वाले अंदाज़ अपना लेते हैं. टेलिग्राफ कई बार आलोचना से आगे बढ़ कर विरोध की पत्रकारीय अतिवादिता तक पहुंच जाता है.
हिन्दी में जागरण को छोड़ कर अमर उजाला, दैनिक हिन्दुस्तान, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर, भास्कर काफ़ी हद तक संतुलित रहते हैं. मोदी का महिमामंडन नहीं करते. राजस्थान पत्रिका तो ताल ठोक कर मोदी-भाजपा-वसुन्धरा आलोचना कर रहा है.
यह सच है कि चैनलों में कुछ तो सचमुच निर्लज्जता की हद तक मोदी भक्ति और विपक्ष-विरोध में जुटे हैं. हिन्दी अंग्रेजी दोनों में. पर तटस्थ और आलोचक भी हैं, दोनों ही भाषाओं में.
एक तरफ राष्ट्रवाद की सरिता बहती रहती है दूसरी ओर शुद्ध विरोध की. इन दो अतियों के बीच वाले भी हैं.
पिछले कुछ सालों में अपनी एक अलग जगह और धमक बना चुके कई ऑनलाइन समाचार-विचार मंचों में तो प्रमुखता मोदी-भाजपा विरोधी स्वरों की ही है. अंग्रेज़ी में खूब तीखी.
उसकी काट के लिए कई राष्ट्रवादी मंच भी उभरे हैं पर वह प्रभाव और प्रसार नहीं हासिल कर पाए हैं. ये ऑनलाइन मंच अपने तीखेपन, मौलिकता, निडरता, विविधता और बौद्धिकता में कई बार अपने प्रिंट साथियों से आगे दिखते हैं.
लेकिन ये सब मुख्यतः राजधानी दिल्ली या कुछ प्रमुख शहरों से निकलने वाले मीडिया की बात है वह भी हिन्दी और अंग्रेजी में.
पर व्यापक भारतीय मीडिया तो सारे राज्यों में, उनकी दर्जनों भाषाओं में है. अपनी दिल्ली-केन्द्रित दृष्टि के कारण हमारा ध्यान उन पर लगभग नहीं जाता. क्षेत्रीय अखबारों और समाचार चैनलों की संपादकीय भूमिका और रुख हमेशा से प्रदेश सरकारों के ज़्यादा ख़िलाफ़ ना जाते हुए, उनसे मिल कर चलने का ही रहा है.
अपवाद सब जगह हैं, यहां भी हैं. केन्द्र सरकार, केन्द्रीय सत्तारूढ़ पार्टी उनके लिए तब तक दोयम दर्ज़े का महत्व रखते हैं जब तक उनके अपने-अपने प्रदेशों से संबंधित बात न हो.
यह ठीक है कि आज बीस से ज़्यादा राज्यों में भाजपा-एनडीए सरकारें हैं इसलिए वहां का मीडिया इस असलियत को प्रतिबिम्बित करता है. केन्द्र-राज्य दोनों जगह एक पार्टी का होना उनके मुख्यमंत्री-मोदी-भाजपा-एनडीए समीकरण से प्रभावित होने को लगभग अनिवार्य सा बना देता है.
ये स्थितियां किसी भी लोकतंत्र के लिए आदर्श नहीं हैं. लेकिन भारतीय मीडिया के चरित्र की ज़मीनी वास्तविकता यही रही है एक लंबे समय से.
लेकिन इसका यह भी मतलब है कि बंगाल में ममता बनर्जी के उग्र रवैए, तेलंगाना में केसीआर, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, पंजाब आदि में आप मोदी की गोदी में बैठे होने का आरोप वहां के बहुसंख्यक मीडिया पर नहीं लगा पाएंगे.
उनका रुख़ अपनी सत्तारूढ़ पार्टी और मुख्यमंत्री के मन के मुताबिक रहता है. जब बिहार में नीतीश भाजपा विरोधी गठबंधन में रह कर सरकार चला रहे थे उस समय भी मीडिया को बेहद सख्ती से नियंत्रण में रखने के आरोप उन पर लग ही रहे थे. आज वही नियंत्रण और दबाव एनडीए के पक्ष में है.
बंगाल मीडिया का भी कुछ अपवादों को छोड़ कर यही हाल है. लेकिन चूंकि इस विराट क्षेत्रीय मीडिया के संपादकीय रुखों और भूमिकाओं का हमें ठीक से पता नहीं चलता इसलिए हमारी विचारों-विश्लेषण से भी यह विशाल विविधता गायब रहती है.
यह सच है कि मनमोहन सिंह सरकार के दस साल के कार्यकाल में मीडिया के कई हिस्से ऐसे मनमोहन या कांग्रेस भक्ति में नहीं लगे थे जैसे आज मोदी भक्ति में लगे हैं.
हालांकि यह याद रखना भी ज़रूरी है कि उन दस सालों में राहुल गांधी को देश और कांग्रेस के प्रखरतम राजनीतिक नायक, उद्धारक के रूप में स्थापित करने के कितने प्रबल मीडिया प्रयास हुए थे.
यह भी याद रखना उतना ही ज़रूरी है कि वे ही दिन थे जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हत्यारा, सांप्रदायिक आदि कहने, दिखाने के अभियान में देश के प्रमुखतम मीडिया संस्थान जम कर शामिल थे.
क्या किसी मुख्यमंत्री या भारतीय राजनीतिज्ञ को इतने लंबे, इतने ज़बरदस्त, इतने सघन विरोध और छविहनन को झेलना पड़ा है जितना मोदी को? नहीं.
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